Wednesday 6 August 2014

धूर्त की मित्रता
एक सियार बूढ़ा हो चला था. भोजन जुटाना उसके लिए कठिन हो गया था. कभी-कभी तो उसे भूखा ही रहना पड़ता था.
सियार का शरीर तो कमज़ोर हो रहा था, परन्तु अभी भी उसका दिमाग खूब तेज़ था. दूसरों को फांसने की नई-नई चालें हर समय वह सोचता रहता था. सब जानते थे कि सियार बहुत चालाक है, सब उससे सावधान रहते थे.
एक दिन सियार ने नदी किनारे खरगोशों का एक जोड़ा देखा. खरगोशों को  देख कर उसकी आँखें चमकने लगीं. उसने मन ही मन कहा, “इनको पहले कभी नहीं देखा. शायद किसी दूसरे वन से आकर यहाँ बस गयें हैं. इन्हें चकमा देना सरल होगा. अगर यह दोनों मेरे हाथ लग जाएँ तो मज़ा आ जाये.”
अगले दिन सियार एक पेड़ के नीचे आ कर बैठ गया. खरगोश उस पेड़ के निकट ही रहते थे. सियार को देख कर दोनों डर गये. परन्तु सियार ने उनकी ओर देखा भी नहीं. वह तो अपनी आँखें बंद कर के बैठ गया, जैसे किसी सोच में हो.
बैठे-बैठे सियार बड़बड़ाने लगा, “मैं भी कैसा मूर्ख हूँ, ढेर सारी गाजरें ले आया. गाजरें बहुत स्वादिष्ट हैं, पर मैं तो गाजरें खाता नहीं. लगता है शरीर के साथ मेरा दिमाग भी कमज़ोर होता जा रहा है.”
सियार इतनी ज़ोर से बड़बड़ा रहा था कि खरगोशों ने सब सुन लिया. उन्हें गाजरें बहुत अच्छी लगतीं थीं. उनके मुंह में पानी आ गया.
एक खरगोश ने दूसरे से कहा, “तुम ने सुना, सियार क्या बड़बड़ा रहा था?”
दूसरा खरगोश बोला, “कुछ गड़बड़ है. यह सियार गाजरें क्यों लाएगा? इस सियार से दूर ही रहना. इसकी बातों में न आना.”
“तुम्हें तो हर बात में गड़बड़ दिखाई देती है. मुझे तो यह बूढ़ा सियार सीधा-साधा प्राणी लगता है. हमें इससे मित्रता कर लेनी चाहिये.”
“इस धूर्त सियार से मित्रता करोगे तो पछताओगे.”
“हम अभी-अभी इस वन में आये हैं. सबसे जान पहचान भी नहीं हुई और तुम कह रही हो कि यह सियार धूर्त है,” खरगोश ने झिड़कते हुए अपनी पत्नी से कहा.
खरगोश ने पत्नी की एक न सुनी और सियार से मित्रता करने चल दिया.
“नमस्ते बाबा, मेरा नाम टिकमा खरगोश है. हम इस वन में नये-नये आये हैं. निकट ही हमारा घर है. आप कहाँ रहते हैं?”
सियार मन ही मन मुस्कराया. वह जानता था कि खरगोश उसकी चाल में फंस गया है. अपनी प्रसन्नता छिपाते हुए उसने कहा, “बेटा, मैं तुम्हारा पड़ोसी हूँ. बूढ़ा हूँ. बिलकुल अकेला हूँ. बहुत दुःखी हूँ.”
“आप दुःखी क्यों हैं?”
“इस वन में न कोई मुझ बूढ़े से बात करता. न कोई मेरे घर आता. न कोई मुझे अपने घर बुलाता.” 
“बाबा, हम आपको अपने घर बुलायेंगे और हम आपके घर भी आयेंगे.”
“तुम आओगे मेरे घर? अवश्य आना, आज ही आना. अपनी पत्नी को भी साथ लाना. मैं तुम्हें गाजरें खिलाऊंगा. ऐसी मीठी गाजरें तुम ने आज तक ना खाई होंगी,” सियार ने प्रसन्नता से कहा.
टिकमा यही तो चाहता था. झट से बोला, “हम आज ही आप के घर आयेंगे.”
लौट कर उसने टिकमी को सारी बात बताई.
“मैं सियार के घर कभी न जाऊंगी. और मेरी मानो तो तुम भी न जाओ,” टिकमी ने कहा.
टिकमा अकेला ही सियार के घर आया. उसे अकेला देख सियार थोड़ा निराश हुआ. वह मन ही मन बोला, “सोचा था दोनों इकट्ठे ही फंस जायेंगे. चलो, आज एक को खा कर पेट भर लूंगा.”
जैसे ही खरगोश सियार के घर की भीतर आया सियार ने दरवाज़ा अंदर से बंद कर, ताला लगा दिया. खरगोश को आश्चर्य हुआ. उसने पूछा, “दरवाज़े पर ताला क्यों लगाया?”
“वह इसलिये कि जब मैं तुम्हें भून कर खाऊं तो कोई मुझे यहाँ आकर तंग न करे.” इतना कह सियार ज़ोर से हंसा.
टिकमा के होश उड़ गये. मन ही मन उसने अपने आप से कहा, “ टिकमी ठीक कहती थी. यह सियार तो बड़ा धूर्त है. गाजरों का लालच दी कर इसने मुझे फांस लिया है. अब मुझे कोई नहीं बचा सकता.”
तभी किसी ने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया. सियार हक्का बक्का रह गया. उसने सोचा भी न था कि इस समय कोई उसके घर आ जायेगा. टिकमा को पकड़ कर उसने एक संदूक में बंद कर दिया. फिर उसने दरवाज़ा खोला. बाहर शंकर हाथी और टिकमी थे. सियार की सिट्टी पिट्टी गम हो गई. वह शंकर हाथी से बहुत डरता था.
“टिकमा कहाँ है?” शंकर गरजा.
“यहाँ नहीं है,” सियार ने धीमे से कहा.
हाथी ने सियार को एक ओर धकेल दिया और घर के भीतर आ गया. उसने सब जगह ढूंढा पर टिकमा कहीं न मिला. तभी टिकमी ने देखा कि एक संदूक से एक शर्ट का कोना बाहर लटक रहा है. ऐसी ही शर्ट टिकमा ने पहन रखी थी. उसने शंकर को बताया. शंकर ने संदूक खोला. टिकमा संदूक के अंदर था. टिकमा को संदूक में बंद करते समय सियार ने जल्दी में ध्यान ही न दिया था कि उसके शर्ट का एक कोना संदूक के बाहर ही लटक रहा था. इतनी सी भूल के कारण वह पकड़ा गया.
शंकर हाथी ने गरज कर सियार से कहा, “तुम सुधरने वाले नहीं हो. तुम्हारा भलाई इसी में है कि तुम इस वन को छोड़ कर कहीं ओर चले जाओ. आज अगर मुझे गुस्सा आ गया तो तुम्हारी जान भी जा सकती है.”
“दादा, इस बुढ़ापे में मैं कहाँ जाऊंगा. मुझ पर दया करो और मुझे यहीं रहने दो. अब मैं किसी को तंग न करूंगा, मैं वचन देता हूँ,” सियार ने रोते-रोते कहा.
“आंसू बहाने से कुछ न होगा. सब तुम्हारी मक्कारियों से तंग आ चुके हैं. भागते हो या करूं तुम्हारी ठुकाई,” शंकर ने डांटते हुए कहा.
शंकर का गुस्सा देख सियार समझ गया कि जान बचा कर भागने में ही अब उसके भलाई है. वह दुम दबा कर भाग निकला. टिकमा और टिकमी खिलखिला कर हंस दिए.
टिकमी ने कहा, “अगर शंकर दादा संयोगवश इसी समय हम से मिलने न आते तो आज तुम बच न पाते. जब मैंने इन्हें बताया कि तुम सियार के घर गये हो तो यह समझ गये कि तुम सियार की चाल में फंस गये हो. और तुरंत तुम्हारी सहायता करने इधर आ गये.”
टिकमा ने हाथ जोड़ कर शंकर हाथी को नमस्कार किया और उन्हें धन्यवाद दिया.
शंकर ने टिकमा से कहा, “ मित्र अवश्य बनाओ, पर ज़रा सोच-समझ कर. धूर्त की मित्रता में सदा हानि ही होती है.”

© आई बी अरोड़ा 

क्या यह कहानी आपको अच्छी लगी?
यह कहानी भी देखें

"अच्छे दिन"

अपने कमेंट्स दे कर अनुग्रहित करें 

No comments:

Post a Comment