Friday 30 January 2015


A Little Poem 




It was a morning
full of fog
Little Zayn and
 his little dog
chased and jumped
on a giant frog
what they caught
was a wild hog.


Thursday 29 January 2015


A Little Poem





Little Zayn
loved  butterflies
they were there
of every size
 with beautiful wings
 and tiny eyes
flying freely
in deep blue skies.



Tuesday 27 January 2015

बेटी का विवाह
बिरजू एक गाँव में रहता था. वह मजूरी कर अपना और अपने परिवार का पेट पालता था. वह मेहनती था. ईमानदार था. लगन के साथ काम करता था. पर गाँव में उसकी कमाई कम ही थी.
वह अपनी बेटी लक्ष्मी से बहुत प्यार करता था. लक्ष्मी विवाह के योग्य हो गई थी. परन्तु बिरजू के पास बेटी का विवाह करने के लिए पैसे ही न थे.
एक दिन उसने अपनी पत्नी से कहा, “इस गाँव में मजूरी कर मैं कभी भी इतने पैसे न कमा पाऊँगा कि बेटी का विवाह कर पाऊँ. मैंने सुना है कि माधवपुर एक बड़ा नगर है. हमारे गाँव से बहुत दूर भी नहीं है. अगर मैं वहां चला जाऊं तो मुझे कोई न कोई ढंग का काम मिल ही जायेगा. एक दो वर्षों में मैं इतने पैसे जमा कर लूंगा कि हम लक्ष्मी का विवाह कर सकेंगे.”
उसकी पत्नी को यह बात जंच गयी. उसने कहा, “तुम्हें ऐसा ही करना चाहिये. तुम हमारी चिंता न करना. मैं मजूरी कर यहाँ घर चला लूंगी. तुम बस लक्ष्मी के विवाह के लिए पैसे इकट्ठे करना.”
बिरजू माधवपुर की ओर चल दिया. रास्ता एक जंगल से होकर जाता था. रास्ते में उसने एक गाड़ी देखी. गाड़ी सामान से भरी हुई थी. सामान जमना प्रसाद का था जो गाड़ी के साथ ही था. गाड़ी का एक पहिया धरती में धंस गया था. एक आदमी पहिया बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था. परन्तु पहिया बाहर न आ रहा था. बिरजू ने उसकी सहायता की और पूरी ताकत लगा के पहिया बाहर निकाल दिया. 
जमना प्रसाद बहुत प्रसन्न हुआ. उसने बिरजू से पूछा, “कहाँ जा रहे हो?”
बिरजू सीधा-साधा था. उसने सब सच-सच बता दिया. जमना प्रसाद ने कहा, “मैं एक व्यापारी हूँ और माधवपुर का रहने वाला हूँ. मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें काम पर रख लूंगा.”
माधवपुर पहुंच बिरजू जमना प्रसाद की दुकान पर काम करने लगा. मेहनत और लगन से उसने व्यापार का हर काम सीख लिया. ईमानदार तो वह इतना था कि जमना प्रसाद सारा काम उसको सौंप निश्चिंत हो गया.
एक वर्ष कैसे बीता बिरजू को पता ही न चला. एक दिन जमना प्रसाद ने कहा, “बिरजू, अब तुम्हें घर जाना चाहिये और बेटी का विवाह करना चाहिये.”
उसने बिरजू को दस हज़ार रूपए दिए और कहा, “यह तुम्हारी मेहनत की कमाई है. तुम्हारी मेहनत की कारण मुझे इस वर्ष दुगना लाभ हुआ. और यह लो पाँच सौ रूपए और यह सोने के कंगन. बेटी के विवाह पर मेरी ओर से बेटी को देना.”
 बिरजू ने जमना प्रसाद के पाँव छू कर धन्यवाद दिया. वह गाँव की ओर चल दिया. वह बहुत प्रसन्न था और बेटी की विवाह का सपना देख रहा था.
रंगनाथ नाम का ठग जंगल के रास्ते में बैठा था. वह बहुत धूर्त था. उस रास्ते से आने-जाने वाले यात्रियों को बहला-फुसला कर वह फांस लेता था और अवसर मिलते ही उन यात्रियों को लूट लेता था. बिरजू को उस रास्ते जाता देख वह उसके साथ हो लिया. बातों ही बातों में उसने जान लिया कि बिरजू बहुत धन कमा कर माधवपुर से घर लौट रहा है.
खाने के समय उसने बिरजू को थोड़ी मिठाई खाने को दी. बिरजू ने बिना सोचे समझे वह मिठाई खा ली. मिठाई में रंगनाथ ने बेहोशी की दवा मिला रखी थी. बिरजू बेहोश हो गया. रंगनाथ ने उसके रूपए और सोने के कंगन चुरा लिए.
रंगनाथ चोरी का सामान बेच देता था. कभी भी चोरी की हुई कोई वस्तु अपने पास न रखता था. पर इस बार चुराये हुए कंगन देख कर उसका मन ललचा गया. कंगन इतने सुंदर थे कि उन्हें बेचने का उसका मन न हुआ. उसने कंगन रख लिए और घर लौट कर अपनी पत्नी, कजरी, को दिए. कजरी यह न जानती थी की उसका पति एक ठग है और लोगों को लूटता है. वह तो यही सोचती थी कि रंगनाथ किसी सेठ के पास काम करता है.
कंगन देख कर कजरी की खुशी का ठिकाना न रहा, “ब्याह के बाद पहली बार मेरे लिए सोने की कोई चीज़ लाये हो.”
कजरी लोगों के घरों में खाना पकाने का काम करती थी. वह जमना प्रसाद के घर भी काम करती थी. जब कंगन पहन कर वह जमना प्रसाद के घर खाना बनाने आई तो उसके हाथों में सोने के कंगन देख कर जमना प्रसाद चौंक पड़ा. वह बोला, “कजरी कंगन तो तुमने बहुत सुंदर पहन रखे हैं. ज़रा दिखाना.”
“मेरा पति मेरे लिए यह कंगन लाया है. ब्याह के बाद आज पहली बार कोई भेंट दी है उसने,” कजरी चहकते हुए बोली. उसने कंगन उतार कर जमना प्रसाद को दिखाए.
जमना प्रसाद देखते ही समझ गया कि यह वही कंगन हैं जो उसने बिरजू को दिए थे. उसने मन ही मन कहा, “ क्या बिरजू ने यह कंगन इसके पति की बेच दिए? या फिर इसके पति ने चुरा लिए? क्या करता है इसका पति? पता लगाना पड़ेगा.”
उसने कजरी से कहा, “एक आदमी मेरी दुकान पर काम करता है. उसकी बेटी का ब्याह होने वाला है. मैं उसे कोई उपहार देना चाहता हूँ. सोचता हूँ ऐसे ही कंगन ले कर दे दूँ. ज़रा अपने पति से कहना मुझ से कल मिले.”
रंगनाथ जब जमना प्रसाद से मिलने आया तो थोड़ा घबराया हुआ था. जमना प्रसाद ने उससे कहा, “ भई, कंगन तो बहुत सुंदर लिए हैं तुमने कजरी के लिये. मुझे भी ऐसे ही एक जोड़ी कंगन लेने हैं.”
रंगनाथ कुछ कह न पाया, उसकी बोलती बंद हो गयी थी.
“मेरे साथ चलोगे? मैं कंगन आज ही ले लेता हूँ.”
“आज न जा पायेंगे, मुझे कुछ काम है,” रंगनाथ ने झिझकते हुए कहा.
“तो कल चलेंगे, या फिर जिस दिन भी तुम्हारे पास समय हो उसी दिन चलेंगे.”
“ऐसे कंगन अब न मिलेंगे, वह सुनहार कहीं चला गया है,” रंगनाथ ने हड़बड़ा कर कहा.
“तुमने यह कंगन चुराये हैं या खरीदें हैं?” जमना प्रसाद ने आँखें दिखाते हुए कहा.
“आप क्या कह रहे हैं? मैं चोर नहीं हूँ, कंगन मैंने खरीदें हैं,” रंगनाथ ने चिल्ला कर कहा.
“झूठ मत बोलो, तुमने बिरजू की हत्या करके यह कंगन और उसके दस हज़ार रूपए चुराये हैं,” जमना प्रसाद ने कड़कती आवाज़ में कहा.
रंगनाथ के होश उड़ गये. उसे समझ ही न आया कि जमना प्रसाद को कैसे पता चला कि उसने बिरजू को लूटा था. परन्तु उसने बिरजू की हत्या न की थी. घबरा कर उसने कहा, “मैंने किसी की हत्या नहीं की. मैंने तो उस आदमी को बस बेहोश किया था.’
“तो तुम स्वीकार करते हो की तुमने कंगन और रूपए चुराये हैं.”
रंगनाथ समझ गया कि उसकी चोरी पकड़ी गयी है. अब अगर जमना प्रसाद उसकी शिकायत कर देगा तो उसे कठोर दंड मिल सकता है. उसे पछतावा होने लगा. उसने जमना प्रसाद से क्षमा मांगी.
“जाओ और अभी बिरजू के पैसे और कंगन लौटा कर आओ’”
रंगनाथ ने कजरी को सब सच बता दिया. वह बहुत दुःखी हुई पर उसने रूपए और कंगन उसे दे दिए.
उधर बिरजू निराशा में डूबा हुआ था. बेटी का विवाह करने का सपना टूट गया था. माधवपुर वापस जाने का उसका मन न था. लेकिन रंगनाथ ने जब उसके रूपए और कंगन लौटा दिए तो उसे विश्वास न हुआ. उसने रंगनाथ को क्षमा कर दिया और धूमधाम से बेटी का विवाह किया.

© आई बी अरोड़ा

Thursday 22 January 2015

अच्छा व्यवहार
तीन गिलहरियाँ थीं. नाम था ईना, मीना और डीका. ईना और मीना बहनें थीं. डीका उन दोनों की सहेली थी.

ईना और मीना सीधी-साधी और भोली-भाली गिलहरियाँ थीं. परन्तु डीका बहुत शरारती थी. हर समय अपनी सहेलिओं को सताती थी. कभी उनकी स्कूल की पुस्तकें फाड़ देती थी, कभी उनकी यूनिफार्म पर रंगो से लकीरें डाल देती थी, कभी टीचर से झूठी शिकायत कर देती थी. टीचर से दोनों बहनों को बार-बार डांट पड़ती थी.

दोनों बहनें अपनी सहेली के व्यवहार से तंग आ चुकी थीं.  उन्होंने उसे कई बार कहा भी था कि उसे इस तरह का बुरा व्यवहार नहीं करना चाहिये, परन्तु डीका थी कि कुछ समझने को तैयार ही न थी.

हार कर ईना और मीना ने डीका से बोलना बंद कर दिया. डीका चिढ़ गयी. कोई भी उससे मित्रता नहीं करना चाहता था. सब जानते थे की वह अपनी शरारतों से परेशान कर देती है.

डीका ने एक दिन स्वयं ही अपनी पुस्तकें फाड़ कर टीचर से कहा कि ईना और मीना ने उसकी पुस्तकें फाड़ दीं हैं.

टीचर ने दोनों बहनों को डांटा और कहा, “अपने पापा को कहना कि  कल मुझे आकर मिलें.”

उनके पापा टीचर से मिले. टीचर ने उनकी शिकायत की. पापा ने दोनों को खूब डांटा. दोनों ने कहा कि उनकी कोई गलती नहीं थी. डीका ने झूठी शिकायत की थी. पर पापा गुस्से में थे. उन्होंने कुछ सुना ही नहीं.

रात में दोनों बहनों ने मिल कर तय किया कि वह डीका को सबक सिखाएंगी.

“अब तक हम उसके साथ अच्छा व्यवहार करते रहे हैं. पर अच्छा व्यवहार तो अच्छे लोगों के साथ ही किया जा सकता है. बुरे लोगों के साथ बुरा व्यवहार ही करना चाहिये,” ईना ने कहा.

“ठीक कहा तुमने, हमने आज तक उस दुष्ट की एक भी शिकायत नहीं लगाई, कभी उसे तंग नहीं किया फिर भी वह हम से बुरा व्यवहार ही करती रही है. अब हम उसे सीधा कर देंगे,” मीना बोली.

ईना और मीना की नानी भी उनके साथ ही रहती थी. वह ईना, मीना के कमरे में ही सोती थी. नानी अपने बिस्तर पर लेटी थी. उसने ईना और मीना की बातें सुन ली थीं.

नानी ने दोनों से कहा, “ किसी अच्छे व्यक्ति के साथ अच्छा व्यवहार करना तो साधारण बात है, ऐसा तो कोई भी साधारण व्यक्ति कर सकता है. बात तो तब है जब हम बुरे व्यक्ति के साथ भी अच्छा व्यवहार करें.”

“पर नानी अगर बुरा व्यक्ति अपना व्यवहार बदले ही नहीं तो हमारी अच्छाई किस काम की?” ईना ने पूछा.

“अरे, अगर बुरा व्यक्ति बदलना नहीं चाहता तो इसका यह अर्थ नहीं की हम अपनी अच्छाई छोड़ कर बुरे बन जाएँ,” नानी ने  कहा.

बात ईना और मीना को समझ आ गई. और दोनों ने तय किया कि न वह डीका से कोई बात करेंगी और न ही उसकी ओर कोई ध्यान न देंगी.

पर अगले दिन एक अनहोनी हो गई.

जब ईना, मीना और डीका आपस में बातचीत करती थीं, तब तीनों एक साथ स्कूल आया-जाया करती थीं. पर अब डीका अकेले ही स्कूल आती-जाती थी.

डीका स्कूल से अकेले आ रही थी. रास्ते में एक जगह, एक पेड़ के पीछे, एक सियार खड़ा था. उसने झपट कर डीका को पकड़ लिया. उसे लेकर वह बदमाश अपने अड्डे की ओर भागा. डीका डर के मारे चिल्ला भी न सकी.
ईना, मीना ने सब देख लिया.

“मैं सियार का पीछा करती हूँ. तुम भाग कर पुलिस को सूचित करो,” ईना ने मीना से कहा.

“हम दुष्ट की सहायता क्यों करें?” मीना ने कहा.

“भूल गई नानी ने कल रात क्या समझाया था? अब देर मत करो, वही करो जो मैं कह रही हूँ,” ईना ने कहा और सियार के पीछे भागी.

मीना पुलिस स्टेशन की ओर भागी. पर रास्ते में ही उसे पुलिस जीप में दिखाई दिया. एक इंस्पेक्टर जीप में बैठा था. सारी बात जान कर इंस्पेक्टर अपनी जीप में सियार के अड्डे की ओर दौड़ा दी.

सियार पकड़ा गया. डीका की विश्वास ही न हुआ की वह बच गई है. उसने इंस्पेक्टर को धन्यवाद दिया.

“अरे, धन्यवाद ईना और मीना को दो. अगर ईना इस बदमाश का पीछा न करती और मीना मुझे तुरंत सूचित न करती तो हम तुम्हें न बचा पाते. यह बदमाश तो पहले ही कितने बच्चों का अपहरण कर चुका है. आज पकड़ा गया, वह भी रंगे हाथों. अब जेल में चक्की पीसेगा.”

डीका ने सुना तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ. वह तो दोनों को खूब तंग करती आई थी. उनकी झूठी शिकायतें भी करती थी. दोनों ने उससे बोलना भी बंद कर दिया था. परन्तु उन्होंने ने ही उसकी सहायता की और उसे बदमाश सियार के चंगुल से छुड़वाया.

डीका को अपनी भूल का अहसास हुआ, उसने ईना और मीना से क्षमा मांगी. तीनों फिर से अच्छी सहेलियां बन गयीं.
*****


© आई बी अरोड़ा      

Monday 19 January 2015

दादा जी का कुत्ता


दादा जी एक कुत्ता लाये. दादी जी ने उसका नाम रखा लेज़ी. कुत्ता बिलकुल भी सुस्त नहीं था, बहुत ही तेज़-तरार था. पर फिर भी दादी जी ने नाम रख दिया, लेज़ी; अर्थात सुस्त. कुत्ता यह बात जानता न था. वह अपने नाम से बहुत प्रसन्न था. जल्दी ही सब से उसकी मित्रता हो गई और वह घर का एक सदस्य बन गया.

एक वर्ष बीत गया. एक दिन दादा जी एक मुर्गा और दो मुर्गियाँ ले आये.

दादा जी का एक मित्र था. मित्र ने एक मुर्गा और दो मुर्गियाँ पाल रखी थीं. उसका बेटा दिल्ली में रहता था. बेटे के बुलाने पर मित्र दिल्ली चला गया. जाने से पहले मुर्गा और मुर्गियाँ दादा जी को दे गया. बोला, “ इनका क्या करूं? साथ ले नहीं जा सकता. किसी को दे दूँगा तो वो अवश्य इन को मार कर खा जायेगा. खा कर कहेगा कि बिल्ली खा गई. आप इनको रख लो. लौट कर मैं आप से ले लूंगा.”

                                    


दादा जी ले तो आये पर दादी जी बहुत गुस्सा हुईं. उनसे भी अधिक गुस्सा लेज़ी को आया. मुर्गे उसे अच्छे न लगते थे. नाक भौंह चढ़ा कर उसने मुर्गे की ओर देखा. अकड़ कर बोला, “मेरा नाम लेज़ी है, कभी भूलना नहीं.”

मुर्गा हंस दिया. फिर मुर्गे ने उससे कहा, “अरे, क्या तुम सच में लेज़ी हो?”

लेज़ी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुँच गया.

“क्या कहा तुम ने?” उसने चिढ़ कर पूछा.

“जानते भी हो कि लेज़ी का अर्थ क्या होता है? यह इंग्लिश भाषा का शब्द है, इतना तो पता ही होगा? या इंग्लिश समझ ही नहीं आती?” मुर्गा भी चिढ़ कर बोला.

अब कुत्ता अपने धैर्य खो बैठा और मुर्गे पर झपटा. कुत्ता यह समझे बैठा था कि उसके डीलडौल को देख कर मुर्गा डर कर पीछे हट जायेगा. कहीं जा कर छिप जायेगा. पर मुर्गा डरने वाला न था. वह भी कुत्ते पर झपटा.

मुर्गे ने अपने पंख फैला रखे थे. पूरी ताकत से उसने कुत्ते के चेहरे पर अपनी चोंच से वार किया. कुत्ता सहम गया. पीछे हटने में उसे अपनी भलाई लगी. पर मन ही मन वह तिलमिला कर रह गया. एक मुर्गे ने उसे डरा दिया था, उसे पीछे हटना पड़ा था यह बात उसे हज़म नहीं हो रही थी.

मुर्ग़े ने अकड़ कर कहा, “लेज़ी का अर्थ होता है सुस्त. ध्यान रखना मुझे सुस्त लोग अच्छे नहीं लगते. मेरी मुर्गियाँ तो सुस्त लोगों को देखना भी पसंद नहीं करतीं.”

कुत्ता कसमसा कर रह गया. इतना अपमान आज तक किसी ने उसका नहीं किया था. 
मुर्गे से अपने अपमान का बदला लेने की बात उसने मन में ठान ली.

मुर्गे को अपनी कलगी पर बहुत अभिमान था. अकड़ कर ऐसे चलता था कि जैसे उसके सिर पर कलगी नहीं कोई राज मुकुट हो.

लेज़ी ने मन ही मन सोचा, “एक दिन मैं इसकी कलगी ही काट कर खा जाऊंगा.”

पर मुर्गे पर झपटने का साहस वह न कर पाया. मुर्गा हमेशा सजग रहता था. कुत्ता अगर उसकी ओर देखता भी तो मुर्गा उस पर हमला करने को तैयार हो जाता. उसका रूप देख कर कुत्ता सहम जाता.

एक दिन कुत्ते ने देखा कि मुर्गा सो रहा है. कुत्ते ने आव देखा न ताव  और मुर्गियों पर टूट पड़ा. मुर्गियाँ घबरा कर चिल्लाने लगीं. मुर्गा तुरंत नींद से उठ बैठा. अपनी घबराई हुई मुर्गियों को देख कर वह आग बबूला हो गया. उसने कुत्ते पर हमला कर दिया. उसकी पीठ पर कूद कर चढ़ बैठा और चोंच से उसे यहाँ-वहां मारने लगा.

शोर सुन कर दादा जी कमरे से बाहर आये. कुत्ते और मुर्गे को इस तरह लड़ते देख कर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ. उन्हें विश्वास न हुआ कि इतना बड़ा और  ताकतवर कुत्ता मुर्गे से मार खा रहा था.

वह लाठी ले कर दौड़े. उन्हें इस तरह आता देख मुर्गा भाग खड़ा हुआ. कुत्ते भी जान बचा कर दादा जी के कमरे में घुस गया.

“अरे, तुम उस मुर्गे से मार खा रहे थे? कैसे कुत्ते हो तुम?” दादा जी ने उसे झिड़कते हुए कहा.

लेज़ी क्या कहता, मन ही मन दुःखी हो रहा था.  

“तुम उससे लड़ क्यों रहे थे? एक बात याद रखना, लड़ाई में तुम जीत भी सकते हो और हार भी सकते हो. लेकिन लड़ाई में जीत कर भी हार ही होती है. हारने वाला सदा जीतने वाले से घृणा ही करता है. प्यार से ही तुम हर किसी को भी अपने वश में कर सकते हो. इस मुगे को भी. कुछ समझ आया कि नहीं?”

बात लेज़ी की समझ में आ गई थी. वह यह भी जानता था कि  मुर्गे से उसने ही अभद्र व्यवहार किया था. उसने मुर्गे को कमज़ोर समझ कर अपना रोब जमाने की कोशिश की थी.

उसने मुर्गे से मित्रता करने की ठान ली. पर मुर्गा भी घमंठी था. इस कारण दादा जी ने एक बार उसे भी खूब डांटा. बस फिर क्या था दोनों ने झट से मित्रता कर ली.

अब न लेज़ी मुर्गे से डरता था, न मुर्गियाँ कुत्ते से डरती थीं, न मुर्गा कुत्ते से दूर रहता था. सब मिलजुल कर मित्रों की भांति रहते थे.
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© आई बी अरोड़ा


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Saturday 17 January 2015

Naughty Rabbit




A rabbit lived near a swamp. His name was Brabit. He was a naughty and fun loving animal. And he loved to tease the crocodiles that lived in the swamp. Every crocodile hated him. Every crocodile wanted to eat him. But he was too quick for them.

Brabit would often play near the crocodiles. He would mock them. And, if any crocodile tried to catch him, he would run away as fast as he could. Once he was out of trouble and at a safe distance, he would laugh loudly. The chasing crocodile could do nothing but glare at him with angry eyes.


But one day Brabit foolishly mocked a lion. The lion lost his temper. He pounced on the silly rabbit. Even before the rabbit could think of running away, the lion caught him. But Brabit was brave and clever. He kept his nerve.

“Sir, it was foolish of me to make fun of you. I am truly sorry. If you let me go I would surely come to your help if you ever fall into some trouble,” he said to the lion.

The lion was amazed at his temerity.

“You think a small animal like you can be of any help to me? You think a strong animal like me can ever fall into trouble?” asked the lion, unable to control his curiosity.

“Sir, you are certainly strong and clever. But anyone can fall into trouble, life is like that.”

“And pray, how would you help me, if ever I am in trouble?” lion asked politely.

“I would analyse the problem and then decide the best course of possible action,” Brabit replied fearlessly.

Lion laughed loudly, “You are a cunning fellow. I will accept your offer. But if you fail to help me when I fall into trouble, I will kill you.”

He let the rabbit go.

Now, it so happened that just one week later a herd of wild buffaloes was passing by the swamp. They were going towards north; to the green pastures of north.

Buffaloes saw the lion. He was reclining under a tree. Lion too saw the buffaloes. He roared to scare away the herd. But the buffaloes felt insulted. They did not like the lions who roared at them.

“This lion needs to be taught a lesson. Why did he roar at us when we did not bother him?” said the leader of the herd.

“Yes, this lion needs to be taught a lesson,” said all the buffaloes in one voice.

The herd charged in anger. The lion knew that he had invited a trouble. He could only escape towards the swamp. But swamp was full of crocodiles. Crocodiles were as nasty as the buffaloes. Lion knew that he was trapped. He had no option but to fight the wild buffaloes and defend himself.

Brabit was, as usual, playing near the swamp. He had heard the lion’s roar. He had seen the buffaloes charging towards the lion.

“Sir, now you are in real trouble. You surely need my help,” Brabit said to himself.

Rabbit knew that he would have to do something quickly for a single lion, however strong, would be no match to a herd of angry wild buffaloes.

He looked at the crocodiles. The crocodiles were enjoying mild sun, reclining near the swamp. He thought of a plan and ran towards the swamp.

“Well, you silly and lazy lizards, why don’t you go and take a swim in the swamp? I want to recline here and enjoy the sun. Get up and get lost,” he shouted at the crocodiles.

The crocodiles hated being addressed as silly and lazy lizards. All of them began to tremble in rage.

“I think we need to teach this rude fellow some manners. What do you say, friends,” asked the leader of the crocodiles.

“We would rather eat him and not teach him,” all crocodiles said in one voice.

The crocodiles attacked the rabbit. He ran away. But this time he did not run as fast as he could. He ran but slowly. The crocodiles felt that they could catch him and they kept chasing him.

The rabbit cleverly ran towards the herd of buffaloes. The crocodiles foolishly kept following him.

Suddenly the buffaloes sensed the approaching crocodiles. The crocodiles were angry and were chasing the rabbit. But, by now, the rabbit had vanished. The buffaloes thought that the crocodiles were charging at them.

They stopped attacking the lion who had defended himself bravely. They turned towards the crocodiles and looked at them suspiciously. The crocodiles also looked at the buffaloes suspiciously. They were a bit scared; they had come too far from the swamp. They felt safe only when they were near the swamp. But they did not show their fear and growled at the buffaloes.

Buffaloes did not want to fight the crocodiles. They retreated and quietly left for the green pastures of the north. The crocodiles too retreated to their swamp.

The lion heaved a sigh of relief. Then he saw the rabbit who was hiding in a nearby bush.

“Sir, did my plan work?” Brabit asked the lion.

“Exceedingly well,” said the lion.

“Sir, you think a small animal like me could be of some help to you?” asked the rabbit. He had a broad smile on his face.

“I can say one thing for sure; in this world even the strongest one needs friends. Let us be friends and for ever,” said the lion. He shook Brabit’s hand.

The lion and the naughty rabbit became friends.
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© i b arora

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