Monday 19 January 2015

दादा जी का कुत्ता


दादा जी एक कुत्ता लाये. दादी जी ने उसका नाम रखा लेज़ी. कुत्ता बिलकुल भी सुस्त नहीं था, बहुत ही तेज़-तरार था. पर फिर भी दादी जी ने नाम रख दिया, लेज़ी; अर्थात सुस्त. कुत्ता यह बात जानता न था. वह अपने नाम से बहुत प्रसन्न था. जल्दी ही सब से उसकी मित्रता हो गई और वह घर का एक सदस्य बन गया.

एक वर्ष बीत गया. एक दिन दादा जी एक मुर्गा और दो मुर्गियाँ ले आये.

दादा जी का एक मित्र था. मित्र ने एक मुर्गा और दो मुर्गियाँ पाल रखी थीं. उसका बेटा दिल्ली में रहता था. बेटे के बुलाने पर मित्र दिल्ली चला गया. जाने से पहले मुर्गा और मुर्गियाँ दादा जी को दे गया. बोला, “ इनका क्या करूं? साथ ले नहीं जा सकता. किसी को दे दूँगा तो वो अवश्य इन को मार कर खा जायेगा. खा कर कहेगा कि बिल्ली खा गई. आप इनको रख लो. लौट कर मैं आप से ले लूंगा.”

                                    


दादा जी ले तो आये पर दादी जी बहुत गुस्सा हुईं. उनसे भी अधिक गुस्सा लेज़ी को आया. मुर्गे उसे अच्छे न लगते थे. नाक भौंह चढ़ा कर उसने मुर्गे की ओर देखा. अकड़ कर बोला, “मेरा नाम लेज़ी है, कभी भूलना नहीं.”

मुर्गा हंस दिया. फिर मुर्गे ने उससे कहा, “अरे, क्या तुम सच में लेज़ी हो?”

लेज़ी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुँच गया.

“क्या कहा तुम ने?” उसने चिढ़ कर पूछा.

“जानते भी हो कि लेज़ी का अर्थ क्या होता है? यह इंग्लिश भाषा का शब्द है, इतना तो पता ही होगा? या इंग्लिश समझ ही नहीं आती?” मुर्गा भी चिढ़ कर बोला.

अब कुत्ता अपने धैर्य खो बैठा और मुर्गे पर झपटा. कुत्ता यह समझे बैठा था कि उसके डीलडौल को देख कर मुर्गा डर कर पीछे हट जायेगा. कहीं जा कर छिप जायेगा. पर मुर्गा डरने वाला न था. वह भी कुत्ते पर झपटा.

मुर्गे ने अपने पंख फैला रखे थे. पूरी ताकत से उसने कुत्ते के चेहरे पर अपनी चोंच से वार किया. कुत्ता सहम गया. पीछे हटने में उसे अपनी भलाई लगी. पर मन ही मन वह तिलमिला कर रह गया. एक मुर्गे ने उसे डरा दिया था, उसे पीछे हटना पड़ा था यह बात उसे हज़म नहीं हो रही थी.

मुर्ग़े ने अकड़ कर कहा, “लेज़ी का अर्थ होता है सुस्त. ध्यान रखना मुझे सुस्त लोग अच्छे नहीं लगते. मेरी मुर्गियाँ तो सुस्त लोगों को देखना भी पसंद नहीं करतीं.”

कुत्ता कसमसा कर रह गया. इतना अपमान आज तक किसी ने उसका नहीं किया था. 
मुर्गे से अपने अपमान का बदला लेने की बात उसने मन में ठान ली.

मुर्गे को अपनी कलगी पर बहुत अभिमान था. अकड़ कर ऐसे चलता था कि जैसे उसके सिर पर कलगी नहीं कोई राज मुकुट हो.

लेज़ी ने मन ही मन सोचा, “एक दिन मैं इसकी कलगी ही काट कर खा जाऊंगा.”

पर मुर्गे पर झपटने का साहस वह न कर पाया. मुर्गा हमेशा सजग रहता था. कुत्ता अगर उसकी ओर देखता भी तो मुर्गा उस पर हमला करने को तैयार हो जाता. उसका रूप देख कर कुत्ता सहम जाता.

एक दिन कुत्ते ने देखा कि मुर्गा सो रहा है. कुत्ते ने आव देखा न ताव  और मुर्गियों पर टूट पड़ा. मुर्गियाँ घबरा कर चिल्लाने लगीं. मुर्गा तुरंत नींद से उठ बैठा. अपनी घबराई हुई मुर्गियों को देख कर वह आग बबूला हो गया. उसने कुत्ते पर हमला कर दिया. उसकी पीठ पर कूद कर चढ़ बैठा और चोंच से उसे यहाँ-वहां मारने लगा.

शोर सुन कर दादा जी कमरे से बाहर आये. कुत्ते और मुर्गे को इस तरह लड़ते देख कर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ. उन्हें विश्वास न हुआ कि इतना बड़ा और  ताकतवर कुत्ता मुर्गे से मार खा रहा था.

वह लाठी ले कर दौड़े. उन्हें इस तरह आता देख मुर्गा भाग खड़ा हुआ. कुत्ते भी जान बचा कर दादा जी के कमरे में घुस गया.

“अरे, तुम उस मुर्गे से मार खा रहे थे? कैसे कुत्ते हो तुम?” दादा जी ने उसे झिड़कते हुए कहा.

लेज़ी क्या कहता, मन ही मन दुःखी हो रहा था.  

“तुम उससे लड़ क्यों रहे थे? एक बात याद रखना, लड़ाई में तुम जीत भी सकते हो और हार भी सकते हो. लेकिन लड़ाई में जीत कर भी हार ही होती है. हारने वाला सदा जीतने वाले से घृणा ही करता है. प्यार से ही तुम हर किसी को भी अपने वश में कर सकते हो. इस मुगे को भी. कुछ समझ आया कि नहीं?”

बात लेज़ी की समझ में आ गई थी. वह यह भी जानता था कि  मुर्गे से उसने ही अभद्र व्यवहार किया था. उसने मुर्गे को कमज़ोर समझ कर अपना रोब जमाने की कोशिश की थी.

उसने मुर्गे से मित्रता करने की ठान ली. पर मुर्गा भी घमंठी था. इस कारण दादा जी ने एक बार उसे भी खूब डांटा. बस फिर क्या था दोनों ने झट से मित्रता कर ली.

अब न लेज़ी मुर्गे से डरता था, न मुर्गियाँ कुत्ते से डरती थीं, न मुर्गा कुत्ते से दूर रहता था. सब मिलजुल कर मित्रों की भांति रहते थे.
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© आई बी अरोड़ा


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