Monday 29 June 2015

“संकेत समझा”

विराट देश का राजा सूर्यसेन एक न्यायप्रिय राजा था. परन्तु उसका सेनापति, विक्रमजीत, नीच स्वभाव का व्यक्ति था. विक्रमजीत रानी सुनंदा का भाई था और रानी के अनुरोध पर ही राजा ने उसे सेनापति बनाया था.

विक्रमजीत हर किसी के साथ बुरा व्यवहार करता था. सेना के अधिकारियों को अपमानित करता था. बात-बात पर लोगों के साथ भी मार-पीट करता था. उसके व्यवहार से सभी दुःखी थे. परन्तु इन बातों का राजा को पता न था. रानी ने सब को चेतावानी दे रखी थी कि कोई भी राजा के पास विक्रमजीत की शिकायत न करेगा. अगर कोई शिकायत करने का साहस करता भी तो विक्रमजीत के लोग उसको बंदी बना लेते थे.

मंत्री भीमदेव सब कुछ जानते थे. परन्तु वह कुछ कर न पाते थे, रानी ने उनसे वचन ले रखा था कि विक्रमजीत के संबंध में राजा से कुछ न कहेंगे.

भीमदेव ने रानी को वचन देते समय यह अनुमान न लगाया था कि विक्रमजीत इतना अत्याचारी व्यक्ति होगा और वह अपने पद का इतना दुरूपयोग करेगा. अब उन्हें अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था. परन्तु रानी उन्हें वचन से मुक्त करने को तैयार नहीं थी. 

एक दिन सेनापति विक्रमजीत अपने एक मित्र के साथ भरे बाज़ार में रथों की दौड़ लगा रहा था. इन दौड़ते रथों से बचने के लिए लोग, डरे हुए खरगोशों के भांति, इधर-उधर भाग रहे थे. लोगों को इस तरह भागता देख विक्रमजीत खिलखिला कर हंस दिया और रथ को और तेज़ दौड़ाने के लिए घोड़ों पर चाबुक बरसाने लगा.

रामहरि नाम का एक व्यक्ति, अपने बीमार लड़के को उठाये, उसी रास्ते से जा रहा था. वह बेटे को एक वैद्य के पास ले जा रहा था.  लड़के की बिमारी के कारण वह बहुत चिंतित था.

उसे पता ही न चला कि रास्ते पर दो रथ बड़ी तेज़ी से दौड़ते आ रहे थे. विक्रमजीत का रथ उससे जा टकराया. रामहरि को अधिक चोट न लगी थी पर उसका बेटा बुरी तरह घायल हो गया.

विक्रमजीत रथ से कूद कर नीचे आया और चिल्ला कर बोला, “अंधे भिखारी, देख कर नहीं चल सकते.”

इतना कह विक्रमजीत रामहरि को चाबुक से पीटने लगा. डर के मारे कोई भी उसकी सहायता को आगे न आया.

अपमान और पीड़ा से रामहरि तिलमिला गया और बेटे को गोद में उठा, राजमहल की ओर चल दिया. वहां उसने राजा से मिलने की याचना की. अधिकारियों ने उसे राजा के पास न जाने दिया तो वह महल के द्वार के निकट बैठ गया.

रानी को सूचना मिली तो वह रामहरि से मिलने आई. रामहरि और उसके घायल बेटे को देख रानी समझ गई कि विक्रमजीत ने फिर एक जघन्य अपराध कर दिया था. वह जानती थी कि अगर यह बात राजा को पता लगी तो वह विक्रमजीत को कठोर दंड दे देंगे.

रानी ने मंत्री भीम देव को सन्देश भिजवाया कि कैसे भी करके वह रामहरि से झुटकारा पायें.

रामहरि और उसके बेटे की दशा देख मंत्री बहुत दुःखी हुआ. मन ही मन अपने को कोसने लगा कि रानी को वचन दे कर उसने मूर्खतापूर्ण कार्य किया था. राजा को विक्रमजीत के कुकर्मो को पता न लग रहा था और उस नीच के अत्याचार बढ़ते जा रहे थे.

उसने रामहरि से कहा, “अभी तुम जाओ और तुरंत अपने बेटे का इलाज कर वाओ. इसके लिए मैं तुम्हें सौ स्वर्ण मुद्रायें दूंगा. देर न करो, कहीं बेटे का कष्ट बढ़ न जाये.”

“मंत्री जी, मैं महाराज से मिले बिना न जाऊँगा, आप मुझे महाराज से मिलने दें,” रामहरि ने विनम्रता से कहा.

“महाराज अभी किसी से नहीं मिल सकते. थोड़ी देर में उन्हें महादेव के मंदिर जाना है. वह तो बस महल से निकलने ही वाले हैं. अतः तुम समय नष्ट न करो, तुरंत वैद्य के पास जाओ और अपने बेटे का इलाज करवाओ.”

रामहरि कुछ देर यूँही खड़ा रहा, फिर कुछ सोच कर उसने अधिकारी से सौ स्वर्ण मुद्रायें लीं और राजमहल से चला गया.

रानी पीछे छिप कर सारी बात सुन रही थी. उसने भीमदेव को धन्यवाद दिया और कहा, “ मंत्री जी, मैं विक्रमजीत को समझा दूंगी. अब वह कोई गलत काम न करेगा.”

भीमदेव चुप रहा, रानी ने ऐसा आश्वासन कई बार दिया था. परन्तु विक्रमजीत के आचरण में कोई परिवर्तन न आया था और न आने वाला था.

कुछ समय बाद महाराज सूर्यसेन महादेव के मंदिर आये. वहाँ उन्होंने एक दीनहीन व्यक्ति को देखा जो घायल भी था. उस व्यक्ति को देखते ही राजा समझ गये कि उसके साथ अवश्य कोई अन्याय हुआ था. परन्तु उस व्यक्ति को देख रानी के पाँव तले से धरती खिसक गई.

“तुम कौन हो और तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? सूर्यसेन ने पूछा.

व्यक्ति ने कहा कि उसका नाम रामहरि है. अपने साथ घटी घटना के विषय में उसने राजा को बताया.

“महाराज, अपने बेटे को मैं चिकित्सा हेतु वैद्य जी के पास छोड़ आया हूँ. अब आपके पास न्याय के लिए आया हूँ.”

राजा का मुख क्रोध से लाल हो गया.

“आश्चर्य है विक्रमजीत ने ऐसा व्यवहार किया तुम से; हमें विश्वास नहीं हो रहा?” राजा ने धीमे स्वर में कहा.

“महाराज, ऐसा अत्याचार सेनापति ने पहली बार नहीं किया, आप चाहें तो जांच करवा लें.” रामहरि ने निडरता से कहा.

सूर्यसेन ने मंत्री की ओर देखा. मंत्री आँखें नीचे किये चुपचाप खड़ा रहा. क्रोध से राजा का शरीर काँप रहा था.

“मंत्री जी, क्या यह सच है? आपने हमें आज तक क्यों नहीं बताया?”

“महाराज, मैं रानी सुनंदा को वचन दे बैठा था. इस कारण सब जानते हुए भी चुप रहा. मैं भी आपका अपराधी हूँ.”

“अभी विक्रमजीत को कैद कर लिया जाये,” राजा ने आदेश दिया.

राजमहल लौट कर सूर्यसेन ने सुनंदा से कहा, “आपने हमें अपराधी बना दिया है. प्रजा तो हमारी संतान समान होती है. उनके दुःख-सुख का सोचने के बजाय आप अपने अत्याचारी भाई का साथ देती रहीं. मंत्री से वचन लेकर उसे भी पाप का भागीदार बना दिया. आप जैसी समझदार और पढ़ी-लिखी महिला से हमें ऐसी आशा न थी. कर्तव्य के स्थान पर अपने रिश्ते-नातों को अधिक महत्व दिया आपने. यह अन्याय है प्रजा के साथ. ऐसा अपराध किसी और ने किया होता तो हम उसे कठोर दंड देते. आपको क्या दंड दें?”

रानी को अपनी भूल का अहसास हुआ और उसने राजा से क्षमा मांगी.

परन्तु दुराचारी विक्रमजीत को आजीवन कारावास की सज़ा दी.

मंत्री भीमदेव ने मन ही मन रामहरि को धन्यवाद दिया. मंत्री का संकेत समझ कर वह महादेव के मंदिर गया था. वहां उसकी भेंट राजा से हो गई और उसने सारा सत्य बता दिया.

राजा का आदेश सुन प्रजा बहुत प्रसन्न हुई. सूर्यसेन के न्याय का डंका चारों ओर बजने लगा.
©आइ बी अरोड़ा


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