दादी की सलाह (भाग 1)
रजत के पिता एक
सरकारी दफ्तर में काम करते थे. हर दो तीन वर्षों में उनकी बदली एक नगर से दूसरे
नगर हो जाती थी. जब भी उनकी बदली होती वो अपना सारा सामान बाँध कर रेल या बस से नई
जगह आ जाते थे.
रजत को नए स्कूल में
प्रवेश लेना पड़ता था. नये नगर और नये स्कूल में उसके नये मित्र बनते थे. पुराने
मित्रों से नाता टूट जाता था.
नई जगह आकर उसका मन
न लगता था. पर धीरे-धीरे उसे अपना नया स्कूल और अपने नये मित्र अच्छे लगने लगते
थे.
जब वह आठवीं कक्षा
में पढ़ता था तब उसके पिता की बदली पांडवपुर हो गई. पांडवपुर एक छोटा-सा नगर था.
वहां आकर पिता ने उसे एक सरकारी स्कूल में प्रवेश दिला दिया. कुछ ही दिनों में
स्कूल में छुट्टियां पड़ गईं.
घर के आस-पास जितने
भी लड़के थे उनका चाल-चलन कुछ अच्छा न था. यह बात रजत की दादी पहले दिन ही जान गई
थी. उसने रजत को समझाते हुए कहा, ‘यहाँ के लड़कों के साथ मित्रता करने में जल्दी न
करना. मुझे इन लड़कों का चाल-चलन कुछ ठीक नहीं लगता. तुम्हें थोड़ा सावधान रहना पड़ेगा.’
‘दादी, स्कूल में भी
मेरा कोई मित्र नहीं बना. अगर मैं आस-पड़ोस के बच्चों के साथ मित्रता नहीं करता तो
मेरा कोई मित्र न होगा.’
दादी ने प्यार से
उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘अगर अच्छे मित्र न मिलें तो अकेले रहना ही उचित
है. जिन लड़कों का चरित्र अच्छा नहीं उनके साथ मित्रता करके कभी भलाई न होगी. उल्टा
कभी मुसीबत में ही पड़ जाओगे.’
रजत ने दादी की बात
कुछ दिन अपने मन में रखी. लेकिन अकेले
रहना उसे अच्छा न लगता था. उसका दिल चाहता था कि उसके बहुत सारे मित्र हों. वो
मित्रों के साथ खेले, पतंग उड़ाये, इधर-उधर घूमे. परन्तु उसे तो सारा समय घर पर ही
बिताना पड़ता था.
उसके पिता अपने काम
में व्यस्त रहते थे. माँ घर के काम-काज में लगी रहती थी. बस दादी थी जो उससे गपशप
करती थी या कभी-कभार लूडो खेल लेटी थी. पर वो भी अपना अधिक समय पूजा-पाठ में लगाती
थी.
कुछ दिनों के बाद
दादी की बात भुला कर उसने अड़ोस-पड़ोस के लड़कों से मित्रता कर ली. उन लड़कों के साथ
वह क्रिकेट या गिल्ली-डंडा खेलता. कभी-कभी उनके साथ घूमने चला जाता.
एक दिन दादी ने
पूछा, ‘क्या बात है? आजकल तुम सारा दिन घर से बाहर रहते हो? कहीं तुमने इन शरारती
बच्चों के साथ दोस्ती तो नहीं कर ली?’
‘दादी, यह लड़के वैसे
नहीं हैं जैसा आप समझती हो.’
‘मेरी बात मानो और
इन सब से थोड़ा दूर ही रहो.’
‘मेरा इन से कोई
मेलजोल नहीं है, बस कभी-कभार इनके साथ क्रिकेट खेल लेता हूँ.’
‘मैंने मना किया
था.’
‘अरे दादी, आप यूँही
चिंता करती हैं. अच्छा, मैं उनसे दूर ही रहूँगा.’
परन्तु रजत ने ऐसा
किया नहीं. धीरे-धीरे उसने उन लड़कों के साथ खूब मेलजोल बढ़ा लिया.
एक दिन रजत अपने
मित्रों के साथ घूम रहा था. एक मित्र ने कहा, ‘क्यों न हम कल परेड ग्राउंड जा कर
क्रिकेट खेलें? गली में खेलने में मज़ा ही नहीं आता.’
‘क्या यहाँ कोई परेड
ग्राउंड भी है?’ रजत ने पूछा.
‘कई साल पहले यहाँ
एक राजा साहिब हुआ करते थे. उनके महल के पीछे एक ग्राउंड थी जहां उनकी सेना परेड
किया करती थी. अब न राजा साहिब हैं, न उनकी सेना. सब लोग उस ग्राउंड में मौज-मस्ती
करते हैं, लड़के दिनभर खेलते रहते है.’
‘कहाँ हैं यह परेड
ग्राउंड?’
‘बहुत दूर, नगर के
दूसरी ओर. साइकिलों पर जाना पड़ेगा.’
‘मेरे पास तो साइकिल
है नहीं,’ रजत ने कहा.
‘तुम अपना क्रिकेट
का सामान ले आना, हम साइकिल ले आयेंगे.’ दूसरे मित्र ने कहा.
‘कहां से? कैसे?’
‘साइकिल किराये पर
ले लेंगे.’ तीसरे ने बताया.
अगले दिन उसके मित्र
तीन साइकिलें लिए आ गये. रजत भी तैयार था. सभी साइकिलों पर सवार हो कर परेड
ग्राउंड की ओर चल दिए.
पैड बांधे रजत बल्ले
बाज़ी कर रहा था कि अचानक उसके मित्र भाग खड़े हुए. रजत कुछ समझ न पाया और भौंचक्का
सा चुपचाप खड़ा रहा.
(कहानी का अंतिम भाग अगले अंक में पढ़ें)
No comments:
Post a Comment