साहस का कार्य
अब तक बच्चे ने
घोंसले से बाहर झाँक कर नीचे देखने का साहस न किया था. नीचे, बहुत नीचे सागर था. वह
सागर की ध्वनी सुन पा रहा था. लहरें जब नीचे चट्टानों से टकराती थीं तो वह
चट्टानों का कम्पन भी महसूस कर पा रहा था.
एक दिन उसे इस
घोंसले से बाहर जाना ही होगा, ऐसा सोच वह थोड़ा सहम जाता था.
‘आज तुम्हें नीचे
जाना होगा, कूदने के लिए तैयार हो जाओ,’ माँ ने उसे धीरे से चट्टान के सिरे तक
धकेला. उसने पहली बार नीचे देखा. नीचे सागर की लहरें तट से टकरा रहीं थीं.
‘हम बहुत ऊपर हैं? मैं
नीचे कैसे पहुंचूंगा?’ उसने थरथराती हुई आवाज़ में पूछा.
‘डरने की कोई बात
नहीं है, नीचे कूद जाओ, मेरी बात का विश्वास करो, तुम्हें कुछ न होगा, तुम नीचे
पहुँच जाओगे,’ माँ ने प्यार से समझाते हुए कहा.
‘मुझे यहीं इस
घोंसले में रहना है, मुझे यहाँ अच्छा लगता है,’ उसने बहाना बनाया.
‘इस घोंसले में तो
जीवन भर नहीं रह सकते, यहाँ खाने को भी कुछ नहीं है. सब बच्चे अपने-अपने घोंसले
छोड़ कर नीचे जा चुके हैं. अब तुम्हें भी जाना है.’
‘अगर मैं चट्टान पर
गिर गया तो?’
‘सब बच्चे बिना
टकराये नीचे पहुँच जाते है.’
‘क्या सच में सब
बच्चे नीचे पहुँच जाते हैं?’
‘सत्य तो यही है कि
कुछ बच्चे चट्टानों पर गिर कर मर जाते हैं. पर फिर भी तुम्हें प्रयास करना ही होगा. अपने-आप में
विश्वास रखो और कूद जाओ.’
माँ ने उसे कूदने के
लिए प्रेरित किया. घोंसला छोड़ते समय माँ ने कहा, ‘जब मैं कूदने के लिए कहूँ तब झट
से कूद जाना.
कुछ समय बाद माँ ने
पुकारा, ‘कूद जाओ.’
उसने सहमी हुई आँखों
से आकाश में उड़ती माँ को देखा. फिर उसने नीचे देखा. चट्टानों को देख वह भयभीत हो
गया. उसके पाँव हिल ही न पा रहे थे.
‘हम पीढ़ियों से ऐसे
साहस के कार्य करते आये हैं. विश्वास रखो और कूद जाओ,’ माँ ने फिर पुकारा.
उसने माँ की पुकार
सुनी परन्तु उसकी झिझक कम न हुई.
कुछ पलों बाद वह कूद गया. वह नहीं जाता था कि आज के
बाद वह कोई साहस का कार्य कर पायेगा या नहीं.
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