Friday, 17 October 2014

पर्वत और बादल


दिन की धूप थी अलसायी
पर्वत के मन थी वह भायी
नर्म-नर्म हवा की लहरें
बस आँखों में नींद भर आई

 पर्वत सोया ही था कि
आकाश में बादल गिर आये
कुछ काले कुछ मटमैले
पर सब हौले-हौले आये

वर्षा की नन्हीं बूंदों ने
पर्वत को छुआ धीरे से
आँख खुली तो आँख धुली
पर्वत ने पूछा बादल से

“तुम भी अजब घुमक्कड़ हो
कोई न देखा तुम सा मैंने
कब तुम आते कब तुम जाते
न मैं जानु न कोई जाने”

“तुम से कहूं क्या मैं भाई
बड़ी अजब है मेरी गाथा
मैं कब आता मैं कब जाता
मैं ही निश्चित न कर पता

“मेरा आना मेरा जाना
मेरा रुकना मेरा चलना
नहीं है कुछ निर्भर मुझ पर
 मैं तो हूँ बस वायु पर निर्भर”

इतना कह बादल खिसका
वेग हुआ था वायु का तीखा
पर्वत मन ही मन मुस्काया
“मुझ सा नहीं है कोई भाया”
                                                                © आई बी अरोड़ा 

No comments:

Post a Comment